Tuesday, 24 February 2009

ऑस्कर से प्यार...मुंबई हमलों से सौतेला व्यवहार

भाई ऑस्कर अवार्ड ख़त्म हो गए और स्लमडॉग ने भी ८ अवार्ड जीतकर सबको चौंका दिया। इस सबके तुंरत बाद हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल की प्रतिक्रिया भी सामने आ गई। दोनों ने करीब करीब ऑस्कर ख़त्म होने के तुंरत बाद अवार्ड जीतने वालों को शुभकामनाएं दी, उससे लगा की हमारे देश को चलाने वाले इन दोनों नेताओं ने पूरे ऑस्कर समारोह को बड़े ही चाव से पूरे तीन घंटे देखा होगा, इसलिए शायद प्रितिक्रिया आने में ज्यादा समय नहीं लगा।

मैं इन दोनों नेताओं की प्रतिक्रिया सुनकर हैरान नहीं हूँ लेकिन जितने जल्दी इन दोनों की प्रतिक्रियां सामने आई उससे में हैरान हुआ हूँ। दरअसल हमारे दोनों नेताओं की इतनी तेजी से प्रतिक्रिया देने पर मुझे थोड़ा आश्चर्य भी हुआ। क्योंकि जिस समय मुंबई में २६/११ के दिन देश का सबसे बड़ा आतंकवादी हमला हुआ था, उस दिन हमारे प्रधानमंत्री जी की प्रतिक्रिया आने में पूरे २४ घंटे लग गए थे, जबकि राष्ट्रपति महोदिया की प्रतिक्रिया तो मैंने देखी भी नही। राष्ट्रपति जी के बारे में मैं शायद में ग़लत हो सकता हूँ , लेकिन २४ घंटे तक इन दोनों की कोई प्रतिक्रिया मैंने तो चैनल पर नहीं देखी। ये तो वही बात हो गई ऑस्कर से प्यार और मुंबई हमलों से सौतेला व्यवहार। ये भी हो सकता है कि राष्ट्रपति जी को प्रतिक्रिया देने का समय ही न मिला हो और हमारे प्रिये प्रधानमंत्री जी शायद सोनिया जी के आदेश का इन्तजार कर रहे होंगे।

क्रिकेट में भारत की जीत हो या ऑस्कर में सफलताओं की बात हो दोनों जगह देश के जिम्मेदार नेता क्रेडिट लेने के लिए तैयार खड़े नज़र आते है। लेकिन जब देश के ऊपर कोई विपत्ति आती है तो उन्हें बोलने के लिए २४ घंटे लग जाते है। ऐसे में अब सवाल ये उठता है की जिन के हांथो में देश की बागडोर दी गई हो वो लोग देश की जिम्मेदारी को कब समझेंगे। सफलता पर बडबडाना और बात है लेकिन जब मुंबई और दिल्ली हमलों जैसी जटिल समस्या देश के ऊपर आती है, तो उसका समाधान निकालना अलग हो जाता है। खैर मुझे नहीं लगता मेरे बडबडाने से कुछ होगा, क्योंकि ना तो देश के नेता सुधरने वाले है और शायद ना ही ये देश।

Friday, 20 February 2009

ब्लोगिंग भी चली देसी मीडिया की राह पर..

मै एक अदना सा ब्लोगर हूँ। ब्लॉग की दुनिया में कदम रखे हुए मुझे ज्यादा लंबा अरसा नहीं हुआ है। पर पता नहीं क्यों पिछले कुछ समय से एक बात मेरे दिमाग में कौंध रही थी, रह रह कर मुझे लिखने के लिए उत्तेजित कर रही थी, वो यह कि ब्लोगिंग भी अपने मूल सिद्धांतों से भटक रही है। मैंने ब्लॉग जगत को जितना जाना है, जितना परखा है, उसके मुताबिक हम ब्लोगर्स अपने अपने ब्लॉग और टिप्पणियों में हमेशा मीडिया की आलोचना करते रहे है। कभी उसके नॉन न्यूज़ को लेकर, तो कभी सेक्स परोसे जाने को लेकर, तो कभी ख़बर को सनसनीखेज बनाने को लेकर, तरह तरह से मीडिया की आलोचना ब्लॉग जगत में होती रही है। ये बात में भी मानता हूँ कि मीडिया की आलोचना के लिए ख़ुद मीडिया ही जिम्मेदार है। लेकिन अगर ब्लॉग जगत की बात की जाए ,तो वो भी इससे अछूता नही रहा है। आज ब्लोगिंग भी हमारे देसी मीडिया की राह पर चलती हुए दिखाई दे रही है, हालाँकि ब्लोगिंग एक माध्यम है अपनी बात को कहने का, हर किसी को हक़ है कि वो ब्लॉग के जरिये अपनी बात को लोगों तक पहुंचाए, लेकिन उसका तरीका सही होना चाहिए। उसकी भाषा सभ्य होना चाहिए। उससे कोई फर्क नहीं पड़ता की मुद्दा क्या है।

आज ब्लॉग जगत में भी वही सब परोसा जा रहा है, जिसके लिए हम भारतीय मीडिया की आलोचना करते है। जिस तरह से मीडिया में सेक्स को बेचा जाता है, ठीक उसी तरह ब्लॉग जगत में भी सेक्स से जुड़ी खबरे काफी तादाद में देखने को मिल रही है और ऐसे ब्लोगों पर टिप्पणियों की हो रही बरसात को देखकर लगता है, कि यहाँ भी सेक्स को तबज्जो देने वाले लोगों की कमी नही है। ब्लॉग जगत में भी मीडिया की ही तरह ख़बरों की भाषा बद से बदतर होती जा रही है, जिसका उदाहरण हम मंगलोर में हुई घटना के बारे में ब्लॉग पर देख ही चुके है। यहाँ भी टिप्पणी पाने के लिए ख़बरों को सनसनीखेज बनाया जा रहा है। एक ब्लॉग पर दिल्ली स्कूल के MMS को लेकर मीडिया की धज्जियाँ उडाई जा रहीं है, कि मीडिया लड़की की पहचान सार्वजनिक कर रही है, पर इसी तरह की एक छेड़खानी की घटना को ब्लॉग जगत भी तो बिना पहचान छिपाए चटकारे लगाकर बता रहा है। क्या उससे उस व्यक्ति की पहचान सार्वजनिक नहीं हो रही है।

अब ये सवाल उठाना तो लाज़मी है कि, क्या ब्लॉग जगत भी देसी मीडिया की राह पर नहीं जा रहा है ? मेरे नज़रिये से तो बिल्कुल ब्लॉग जगत हमारे तथाकथित मीडिया से कदम से कदम मिलकर चल रहा है। जिसे हर हाल में रोका जाना चाहिए, नहीं तो इस दौर की पत्रकारिता का सबसे सशक्त माध्यम बन कर उभर रहे ब्लॉग जगत को गर्त में जाने से कोई नहीं रोक सकता। ब्लॉग जगत में बड़े-बड़े पत्रकारों से लेकर कई बुद्धिजीवी लोग भी बैठे हुए है, मै उनके विचार जानने के साथ साथ उनसे यह आशा भी करता हूँ, कि वो भी ब्लॉग जगत के भटक रहे क़दमों को रोकने का प्रयास करेंगे।

Sunday, 15 February 2009

युवाओं का फैशन हो गया है...नेताओं को गाली बकना।

एक वक्त था, जब आम लोग नेताओं के साथ कंधे से कन्धा मिलाकर काम किया करते थे। लोग नेता कहलाने में फक्र महसूस किया करते थे। नेताओं का मतलब हुआ करता था, समाज की सेवा करने वाला व्यक्ति, लेकिन आज राजनीती एक दलदल में परिवर्तित हो गई है, हर नेता लोगों का खून चूसने में लगा हुआ है। ऐसे में हमारा आने वाला कल यानि "युवा" हाँथ पर हाँथ धरे बैठे हुआ है। युवाओं का फैशन हो गया है, नेताओं को गाली बकना। जब भी युवाओं से राजनीति की बात की जाती है, तो पहले वो इस पर बात करने से बचते है और अगर बात आगे बढ़ी, तो नेताओं को गाली देकर अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाते है। कोई नेताओं को भ्रष्टाचारी कहता है, तो कोई उन्हें देश का दुश्मन करार दे देता है।

अब सवाल ये उठता है, की नेताओं को गाली देना कितना सही है। मेरे नज़रिये से अकेले नेताओं को देश की बर्बादी के लिए जिम्मेदार ठहराना ग़लत है। देश की बर्बादी के लिए हम और हमारा युवा वर्ग भी उतना ही जिम्मेदार ,है जितने ये भ्रष्ट नेतागण, क्योंकि जब भी इन्हे चुनने की बारी आती है, तो हमारे युवा पहले तो वोट नहीं देते है और जो देते है, वो एक दारू की बोतल या फ़िर १०० रुपये के कम्बल में अपना वोट बेंच देते है और पॉँच साल तक फ़िर नेताओं को गाली देने का क्रम चालू हो जाता है। मुझे एक बात समझ में नहीं आती कि इन युवाओं को जिनका राजनीति में कोई योगदान नहीं है, किसने ये हक़ दिया कि वो नेताओं को गाली दे।

जब भी हमारे देश में बच्चा पैदा होता है, तो उसके माँ बाप कहते है कि, मैं अपने बच्चे को डोक्टर, पायलट या इंजिनीअर बनाऊंगा, लेकिन ये कोई नहीं कहता कि, मेरा बेटा बड़ा होकर नेता बनेगा। चलिए मैं भी ये नहीं कहता कि सभी को नेता बनना चाहिए, लेकिन एक सही व्यक्ति का चुनाव करने में सभी को योगदान देना चाहिए। अब इस पर भी हमारे युवा कहेंगे कि सभी उम्मीदवार एक जैसे होते है।जिसे चुनकर लाओगे वही पैसा खायेगा। मैं उन सब लोगों से पूछना चाहता हूँ, कि एक आदर्श नेता कैसा होता है, लोगों के हिसाब से इमानदार, मेहनती, युवा व्यक्ति ही सच्चा नेता होता है, लेकिन वो कहेंगे ऐसे लोग चुनाव मे खड़े नहीं होते।
मैं एक उदाहरण देना चाहूँगा, अभी पिछले साल ही उत्तर प्रदेश में चुनाव हुए है, जहाँ कानपुर से सात IIT के छात्र चुनाव मैदान में उतरे थे, लेकिन सबसे चौकाने वाली बात ये है कि, उनमे से एक भी छात्र अपनी जमानत नही बचा पाया. अब गौर करने वाली बात आती है कि, IIT के छात्र पढ़े लिखे भी होते है, इमानदार भी है और युवा तो वो है ही, लेकिन इसके वाबजूद लोगों ने उन्हें वोट क्यों नहीं दिया ? अब इस बात का जवाब तो हमारा युवा वर्ग ही दे पायेगा, लेकिन इतना तय है, कि अगर अब भी हमारे युवाओं ने नेताओं को गाली देना नहीं छोड़ा और देश के विकास के लिए योगदान देने आगे नहीं आए, तो आगे भी हमारा देश पप्पू यादव, मुख्तार अंसारी और सहाबुद्दीन जैसे बाहुबली नेताओं के चंगुल में फसकर बर्वाद होता रहेगा...और फ़िर इन बाहुबली नेताओं को गाली भी नहीं दे पाओगे।

Thursday, 12 February 2009

स्टिंग ऑपरेशन...सही या ग़लत ?


स्टिंग ऑपरेशन एक ऐसा ऑपरेशन होता है, जिसमे डॉक्टर भी मीडिया वाले होते है और मरीज भी उनका मनचाहा होता है. डॉक्टर से मेरा मतलब रिपोर्टर या कैमरामैन से है और मरीज का मतलब वो व्यक्ति जिसे निशाना बनाया जाता है. स्टिंग ऑपरेशन करने से पहले बाकायदा उसका खाका तैयार किया जाता है, दाना डालने में माहिर रिपोर्टर चुना जाता है, दाना डालने से मेरा मतलब है, मरीज को फ़साने के लिए लम्बी लम्बी हांकना और इसके बाद अच्छे कैमरामैन का चुनाव होता है. फ़िर चुना जाता है उस किरदार को जो पूरी स्टोरी का अहम हिस्सा होता है, यानि मरीज... जिसे बकरा भी कहा जाता है. स्टिंग ऑपरेशन में सबसे महत्वपूर्ण होता है कैमरा, जिसके लिए कुछ उन्नत किस्म के छोटे कैमरों का इस्तेमाल किया जाता है, जो सामने वाले को आसानी से दिखाई नही देते। इन सारी चीजों को जब अमल में लाया जाता है तब होता है स्टिंग ओपरेशन.

मीडिया में स्टिंग ऑपरेशन का चलन काफी पहले से है, पहले प्रिंट मीडिया भी स्टिंग ओपरेशन किया करती थी। अब स्टिंग ओपरेशन इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का अभिन्न अंग हो गया है। समय समय पर चैनल स्टिंग ऑपरेशन करता आया है। तहलका, इंडिया मोस्ट वांटेड, कोबरा पोस्ट जैसे प्रोग्राम स्टिंग ऑपरेशन के लिए ही जाने जाते है। पैसे लेकर सबाल पूछने का मामला हो, शक्ति कपूर, अमन वर्मा का स्टिंग हो या फ़िर गुजरात चुनाव के पहले किया गया गोधरा कांड का स्टिंग हों, सभी ने हिन्दी चैनलों पर काफी धूम मचाई है। स्टिंग ऑपरेशन आजकल न्यूज़ कम और रिपोर्टर को तरक्की देने वाला माध्यम अधिक बनता जा रहा है, जिससे इसकी सार्थकता पर भी असर पड़ा है।

सवाल ये उठता है कि स्टिंग ऑपरेशन कितना सही होता है, आजकल मीडिया के कई दिग्गज भी स्टिंग के ऊपर सवाल उठा रहे है. जिसमे महान पत्रकार कुर्बान अली तो यहाँ तक कहते है की, सभी स्टिंग ऑपरेशन ब्लैकमेल करने के लिए होते है. लेकिन मीडिया में ऐसे लोंगो की कमी भी नहीं है, जो इसे जायज़ ठहराते है. दरअसल स्टिंग पत्रकारों के लिए तुरत - फुरत पैसे कमाने का माध्यम बन गया है. मीडिया ने ऐसे कई स्टिंग ऑपरेशन किए है जिसे फर्जी साबित भी किया गया है, जिनमे एक राष्ट्रीय चैनल के द्वारा किया गया, दिल्ली का उमा खुराना का स्टिंग काफी चर्चा में रहा था. इसके अलावा गोधरा स्टिंग पर भी सवाल उठे थे कि, ये ख़ुद मोदी ने करवाया है. कई स्टिंग मीडिया ने लोगों के बेडरूम तक में जाकर किए है, जिसे हरगिज सही नही ठहराया जा सकता, हालाँकि ऐसा नही है, कि सारे स्टिंग ऑपरेशन फर्जी रहे है, लेकिन जो मीडिया आज अपने को समाज का ठेकेदार कहने से बचने लगी है, उसे किसने ये अधिकार दिया है, कि किसी के घर में घुसकर उसकी निजी जिन्दगी से खिलवाड़ किया जाए. वो भी तब जब उसका ख़ुद का दामन दागदार हो...

Sunday, 8 February 2009

राम...अब नहीं आएंगे काम


भगवान राम एक ऐसा नाम है, जिसपर लाखों लोगों की श्रद्धा है। जिनके नाम से करोड़ों लोगों की आस्था जुड़ी हुई है. राम हिंदू धर्म के इष्ट देव कहलाते है. वैसे हिंदू धर्म में कभी राम का बर्चस्व नहीं रहा, क्योंकि हिंदू धर्म में सभी देवी देवताओं को सामान रूप से पूजा जाता है, लेकिन देश की एक बड़ी राजनीतिक पार्टी भारतीय जनता पार्टी में हमेशा से ही राम नाम की तूती बोलती है. पार्टी के बैनर से लेकर पार्टी स्लोगन भी राम नाम से ही होते है. एक समय में बीजेपी का नारा हुआ करता था, जो राम का नही वो किसी काम का नहीं। इसी राम नाम के सहारे अब तक बीजेपी अपनी नैया पार करती रही है. लेकिन यथार्त के धरातल पे आते ही बीजेपी को राम की याद आना बंद हो जाती है. जब भी लोगों को बरगलाना हो या चुनावी रोटियां सेंकनी हो, तो राम मन्दिर और राम सेतु जैसे मुद्दों के सहारे समय समय पर बीजेपी को भी राम की याद आ ही जाती है.

पिछले ५ सालों से राम के नाम पार खामोश रही बीजेपी को चुनावों के ठीक पहले फ़िर से राम और राम मन्दिर की याद आ गई है। बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने पार्टी के चिंतन शिविर को संबोधित करते हुए एकबार फ़िर से राम मन्दिर का वही पुराना घिसा पिटा राग अलापा है, जिसमे बड़े जोश के साथ राजनाथ सिंह ने कहा, कि सत्ता में आने के बाद राम मन्दिर का निर्माण कराया जाएगा. इस मन्दिर मुद्दे को बीजेपी एक बार फ़िर से भुनाना चाह रही है और इसके सहारे फ़िर से सत्ता पर काबिज होने का सपना भी देखने लगी है. अब ये बात किसी को हजम नही हो रही है, कि जिस राम मन्दिर के सहारे बीजेपी ने ६ साल तक सत्ता का सुख भोगा, उसी बीजेपी ने अपने पूरे कार्यकाल में राम मन्दिर बनवाना तो दूर, उसके बारे में बात करना तक गबारा नहीं समझा. अब सबाल ये उठता है की क्या वही बीजेपी दोबारा सत्ता में आकर मन्दिर निर्माण करवा पायेगी.

राजनाथ जी ये बदलते दौर का भारत है, अब राम आपके काम नहीं आएंगे। अब यहाँ की जनता ना ही आपके बहकावे में आने वाली नही है और ना ही आप जैसी मौकापरस्त पार्टियों को घांस डालने वाली है। राम में हर हिंदू की आस्था है और राम मन्दिर हर हिंदू की दबी हुए अभिलाषा भी है, लेकिन अब वह हिंदू आप जैसे लोंगों की चिकनी चुपडी बातों में आकर फिसलने वाला नही है। अब राम के नाम पर ना ही कोई राम सेतु तोड़ सकता है और ना ही सरकार बना सकता है।

अंत में चंद लायने हम सबके लिए.....

"जो हिंदू न मिटा है, कंस की तलवार से
जो हिंदू न डरा है, रावण की ललकार से
वो हिंदू क्या फसेगा, बीजेपी की बकवास से"



Friday, 6 February 2009

काश !.. मैं भी क्रिकेटर होता


फ्लिंटाफ - ७.५५ करोड़, पीटरसन- ७.५५ करोड़, धोनी ६ करोड़...आज खबरिया चैनलों पर क्रिकेटरों की बोली लगते हुए देखा, तो मन में एक ही ख्याल आया कि, काश मैंने भी बचपन में क्रिकेट खेला होता, काश उसपर दिन रात एक कर दिया होता, तो शायद आज मैं भी करोड़ों में खेल रहा होता. आज मुझे एहसास होता है कि जो लाखों रूपये मैंने अपनी पढाई के दौरान खर्च किए, अगर उसे क्रिकेटर बनने में खर्च किया होता, तो शायद आज १०-२० हजार के लिए दिन रात एक नहीं करना पड़ता और मजे से खेल कर भी पैसा कमा रहा होता. खैर अब पछताए होत का जब चिडिया चुग गई खेत।

जिस तरह से IPL में क्रिकेटर बिक रहे है, उससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि, आज अगर सबसे ज्यादा पैसा किसी धंदे में है तो वो क्रिकेट में है. तभी तो फिल्मी सितारे हों या राजनीती की गोटियाँ खेलने वाले नेता, सभी किसी न किसी रूप में क्रिकेट से जुड़ रहे है और करोड़ों के बारे न्यारे कर रहे है. वैसे हमेशा से एक बहस चली आ रही है कि असली हीरो कौन है, "क्रिकेटर" जो देश के लिए खेलते है या फ़िर परदे के "फिल्मी हीरो" जो लाखों दिलों पर राज करते है. इस बहस में हमेशा से क्रिकेटर, फिल्मी हीरो से एक कदम आगे रहे है. लेकिन जिस तरीके से क्रिकेटरों का भाव लग रहा है, वे IPL के बाज़ार में बिक रहे है उसे देखकर मन में सबाल उठता है कि, क्या बाकई में ये क्रिकेटर देश भावना के लिए खेलते है या फ़िर पैसा ही इनके लिए सबकुछ है.

जनाब पैसा बोलता है और IPL के बाजार में भी पैसा बोल रहा है. तभी तो एक - एक प्लेयर करोड़ों में बिक रहा है चाहे वो भारतीय हों या विदेशी. एक ओर जहाँ हमारा देश घोर आर्थिक मंदी के दौर से गुजर रहा है, लोंगों को नौकरियां बचाने के लिए जद्दोजहत करनी पड़ रही है, वहीँ इसे देश कि विडंबना ही कहेंगे कि दूसरी ओर क्रिकेट में लग रही बोली में करोड़ों रुपये पानी की तरह बहाया जा रहा है.
खैर इस देश का तो कुछ नही हो सकता, और आप के बारे में भी मुझे नहीं मालूम, लेकिन IPL में लग रही इस बोली से एक सबक तो मैंने सीख ही लिया कि, मैं तो क्रिकेट नही खेल पाया, लेकिन अपने बच्चों को मार-मार के क्रिकेटर जरूर बनाऊंगा.

Monday, 2 February 2009

“मीडिया”..देश के लिए खतरा !


लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ होने का दम भरने वाली मीडिया इस समय अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है। आम हो या खास हर आदमी मीडिया की आलोचना कर रहा है। जो आदमी पहले मीडिया को लोकतंत्र का हितैषी कहता था, अब उसी मीडिया को देश के लिए खतरा बता रहा है ।सही भी तो है, हमेशा आम आदमी के सरोकार की दुहाई देकर अपनी दुकान चलाने वाली मीडिया, अब उसी आम आदमी को ठेंगा दिखा रही है. TRP की अंधी दौड़ में भाग रही मीडिया के लिए अब हाई प्रोफाइल लोग ही ख़बर बनते है. जब भी किसी की हत्या होती है या फ़िर किसी के साथ बलात्कार होता है, तो अपने को पत्रकार कहने वाले मीडिया के उच्च पदों पर बैठे लोग पीड़ित की प्रोफाइल पूंछते है, अगर पीड़ित किसी डॉक्टर, इंजिनियर, या फ़िर फिल्मी दुनिया से जुड़ा कोई शख्स है, तो वो उनके लिए ख़बर है अगर इससे नीचे कोई है, तो उसे पूंछने की जहमत भी कोई मीडिया हाउस नही उठाता.

पिछले ४ दिनों से मीडिया, हरियाणा के पूर्व उप मुख्यमंत्री चाँद और उनकी बीबी फिजा की नौटंकी को दिखा रहा है, जिससे आम आदमी का कोई सरोकार नही है. कोई उसे सबसे तेज़ दिखा रहा है, तो कोई उस ख़बर को हर कीमत पर दिखा रहा है. कोई कहता है, कि उसकी नज़र हर ख़बर पर है. ख़बरों के नाम पर नंगापन परोसना, अपने मन मुताबिक उन्हें सनसनीखेज बनाना, आज मीडिया का काम बनता जा रहा है। आखिर मै इस बात को अब तक नहीं समझ पा रहा हूँ कि भूत प्रेत और कुत्ता बिल्ली का खेल दिखाने वाले इस मीडिया को समाचार चैनल कहा जाए या फ़िर मनोरंजन चैनल।

जिस तरह से आरूषी का फर्जी MMS दिखाया गया और जिस तरह से मुंबई हमले की रिपोर्टिंग कि गई, उससे कुछ भला तो नही हुआ, उल्टा मरने के बाद भी एक लड़की बदनाम हो गई और दूसरा, आतंकवादी ६० घंटे तक मुंबई को अपनी गिरफ्त में लेकर अपनी मनमानी करते रहे .२६/११ के इस हमले के बाद भी मीडिया को ताज और ओबेरॉय की याद अब तक आ रही है, लेकिन CST और नरीमन हाउस अब उन्हें याद नहीं है. क्योंकि इस मीडिया को आम आदमी का दर्द कभी दिखाई ही नही देता. ठीक है अपनी रोजी रोटी चलाने के लिए TRP कि दौड़ मै दौड़ना जरुरी है, लेकिन फ़िर क्यों ये मीडिया वाले अपने को समाज का सच्चा हितैषी बताते है. अभी भी बक्त है मीडिया को अपने गिरेबान में झांककर देखना चाहिए, कि जिस आम आदमी ने उन्हें हीरो बनाया है वही उसे जीरो भी बना सकता है.