Saturday, 28 November 2009

मुसलमानों की एक और करतूत...

मुसलमानों और मुस्लिम देशों की करतूतों से तो हम सभी परिचित है लेकिन एक मामला ऐसा है जिसे सुनकर शायद आप इन्हें शांति का सबसे बड़ा दुश्मन करार दे देंगे..ये घटना मैंने पत्रिका वेबसाइट में पढ़ी है और आप लोगों को भी इस बारे में परिचित करना चाह रहा हूँ...अब मुद्दे की बात पे आता हूँ मुस्लिम देश ईरान की एक महिला जिसे शांति का नोबेल पुरूस्कार दिया गया था जो की नोबेल पुरुस्कारों के इतिहास में पहली मुस्लिम महिला को दिया गया था, उसका मेडल ईरान सरकार ने जब्त कर लिया है सिर्फ इसलिए क्योंकि वो महिला शांति की बात कर रही थी...पूरी जानकारी आप नीचे पढ़ सकते है...

नोबल पुरस्कार विजेता का मेडल जब्त

शांति का नोबेल जीतने वाली ईरानी महिला वकील और मानवाधिकार कार्यकर्ता शिरीन इबादी का मेडल ईरान सरकार ने जब्त कर लिया है। नोबल पुरस्कारों के 108 साल के इतिहास में यह पहली घटना है जब किसी नोबल विजेता का गोल्ड मेडल जब्त कर लिया गया। नार्वे के आधिकारिक सूत्रों के मुताबिक यह सचमुच चौंकाने वाली बात है।

इबादी को 2003 में लोकतंत्र और शांति स्थापना के लिए किए प्रयासों के लिए नोबल दिया गया था। इसके बाद से ही ईरानी आधिकारियों की प्रताड़ना का शिकार हो रही थी। हाल ही में तीन महीने पहले तेहरान रिवाल्यूनरी कोर्ट के आदेशों के आधार पर करीब तीन सप्ताह पहले उनके मेडल को छीन लिया गया। इबादी फिलहाल लंदन में है। उन्होंने बताया कि मेडल के अलावा इस सम्मान में मिली अन्य वस्तुएं भी जब्त कर ली गई है।

इबादी का कहना है कि सरकार ने उनके बैंक खातों को भी फ्रीज कर दिया है और उनसे ईनाम में मिली राशि पर करीब चार लाख डॉलर का टैक्स दिए जाने की मांग की जा रही है। जबकि ईरानी कानून में इस तरह के पुरस्कारों को किसी भी टैक्स से मुक्त रखा गया है।
इबादी का कहना है कि वह इतनी आसानी से डरने वाली नहीं शांति स्थापना के प्रयास जारी रखेगी। उन्होंने कहा कि इस तरह की धमकियां उन्हें अपनी मातृभूमि से अलग नहीं कर सकती है। इबादी शांति का नोबल पुरस्कार जीतने वाली पहली मुस्लिम महिला है।

Wednesday, 8 July 2009

चिट्ठाजगत कृपया मेरी समस्या का भी समाधान करें....

मेरे नजरिये से ब्लॉग लिखना उतना कठिन काम नहीं है जितना उसकी समस्याओं से निपटना॥आये दिन हम सब को ब्लॉग से जुडी छोटी बड़ी समस्याएँ आती रहती है। ऐसी ही एक छोटी सी समस्या मेरे ब्लॉग में भीआ गयी है। मै चिटठाजगत के महानुभावों से इस समस्या का निदान करने की चेष्टा कर रहा हु, कृपया उचित मार्गदर्शन करें॥

दरअसल कुछ दिन पहले मुझे अपने ब्लॉग पर एक्सपेरिमेंट करने की सूझी...बहुत समय से लोगों को नयी नयी थीम लगाते देख रहा था, सोचा ऐसा ही कुछ में भी करूँ। मगर वो कहते है न की अध जल गघरी छलकत जाये और मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ, अधुरा ज्ञान लेकर मैंने भी थीम बदलने की कोशिश कर डाली, हालाँकि इसमें मै कुछ हद तक सफल भी हो गया था लेकिन कहते है की जब समय ख़राब होता है तो बनता काम भी बिगड़ जाता है॥वो HTML जैसा कुछ होता है, उसे बार बार बदलने से मेरा कमेन्ट साफ़ दिखना बंद हो गया. जब आप लोग कमेन्ट करने जायेंगे तो खुद आपको दिखाई दे जायेगा.

काफी दिनों से उसे ठीक करने का असफल प्रयास कर चूका हू, लेकिन अभी तक सफल नहीं हो पाया..मै ब्लॉगजगत में एक अदना सा लिक्खाड़ हूँ सो इस बारे में कुछ कम जानता हूँ...अब ये कमेन्ट बॉक्स मुझे कुछ अच्छा नहीं लग रहा, सो थक हार कर आप लोगों से मदद की गुहार कर रहा हूँ....कृपया कमेन्ट कर मुझे उचित मार्गदर्शन करने की कोशिश करें...मै आप सब का तहे दिल से आभारी रहूँगा...

Thursday, 11 June 2009

क्या इंडियन एक्सप्रेस की इस गलती को माफ़ किया जाना चाहिए??


पत्रकारिता के मापदंडों में हमेशा खरा उतरने वाले समाचार पत्र इंडियन एक्सप्रेस ने एक बड़ी चूक को अंजाम देने का काम किया है. इंडियन एक्सप्रेस नामक अखबार ने अपने ११ तारीख के एडिशन में मुंबई हमलों की सबसे छोटी गवाह एक १० साल की मासूम बच्ची और उसके पिता का फोटो प्रकाशित किया है. असली फोटो को आप इंडियन एक्सप्रेस की वेबसाइट में देख सकते है. इस फोटो में बच्ची और उसके पिता का चेहरा साफ तौर से दिखाई दे रहा है. १० साल की यह मासूम मुंबई हमले में पकडे गए आतंकी कसाब के खिलाफ गवाही देने कोर्ट पहुंची थी।
इस खबर को लगभग सभी टीवी चैनल और अख़बारों ने दिखाया और प्रकाशित भी किया, लेकिन सभी टीवी चैनलों ने पहली बार लड़की की पहचान छुपाकर खबर दिखाई जो आमतौर पर होता नहीं है. मगर इस बार इंडियन एक्सप्रेस जैसे नामी और पत्रकारिता की समझ रखने वाले अखबार ने इनती बड़ी गलती कर दी। इस तरह से खुली तस्बीर छापने से हो सकता है उस बच्ची की जान को खतरा पैदा हो जाये, लेकिन अखबार ने इस ओर ध्यान दिए बिना ये गलती कर डाली. मुंबई हमले को लेकर कोर्ट भी साफ़ कर चुका है, कि किसी भी गवाह और सबूत को ना ही दिखाया जायेगा और ना ही प्रकाशित किया जा सकता है।
अब सवाल ये उठता है की क्या इस तरह की भयंकर चूक को माफ़ किया जा सकता है या नहीं?? मेरे नजरिये से हमेशा टीवी चैनल को गरियाने वाले अखबारों पर भी नकेल कसी जाये. इस ओर सरकार को भी ध्यान देना होगा की किसी भी मीडिया की गलती को नजरअंदाज नहीं किया जाये... नहीं तो इन लोगों को फ़िर से गलती करने का हौसला मिल जाएगा और इसका खामियाजा किसी मासूम को भुगतना पड़ सकता है।

Sunday, 24 May 2009

मातोश्री में डॉन...

राजनेताओं और अंडरवर्ल्ड के बीच रिश्तों की बातें हमेशा ही सुनने को मिलती रहती है, लेकिन इनकी खुलेआम मुलाकात कम ही देखने को मिलती है। मुंबई में इन दिनों अंडरवर्ल्ड डॉन अश्विन नाइक और शिवसेना सुप्रीमो बालासाहिब ठाकरे के बीच हुई मुलाकात चर्चा का विषय बनी हुई है। वैसे तो शिवसेना और अंडरवर्ल्ड के बीच रिश्तों की बात समय समय पर निकल कर आती रही है, लेकिन पिछले दिनों ९० के दसक में आतंक का पर्याय माने जाने वाला डॉन अश्विन नाइक अचानक बालासाहिब से मिलने उनके निवास मातोश्री पहुच गया जो मुंबई के लोगों के लिए काफी चौंकाने वाली बात रही।

जो अंडरवर्ल्ड डॉन अश्विन नाइक के बारे में कम जानते है उनको मै बताना चाहूँगा, कि अश्विन नाइक गैंगवार के जन्मदाता और कभी मुंबई पर राज करने वाला अमर नाइक का भाई है और ९० के दसक में उसकी तूती बोलती थी। अश्विन के ऊपर मुंबई और महाराष्ट्र में लगभग हत्या के १६ मामले दर्ज है। अभी हाल ही में अश्विन नाइक अपनी पत्नी और पूर्व पार्षद नीता नाइक की हत्या के मामले में जेल से छूटा है। जहाँ तक बालासाहिब से उसकी मुलाकात कि बात है तो जो खबर आ रही है, उसके मुताबिक शिवसेना अश्विन नाइक को आनेवाले विधानसभा चुनावों में मनसे के काट के रूप में स्तेमाल कर सकती है, क्योंकि लोकसभा में मनसे ने शिवसेना का काफी नुकसान किया था। जबकि मुंबई के कई इलाकों में अभी भी अश्विन की धाक बरकरार है।

आनेवाले विधानसभा चुनावों में अगर अश्विन नाइक शिवसेना का प्रचार करता नज़र आया तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। अब सवाल ये उठता है की क्या आने वाले समय में भी यही गुंडा मवाली हमारे देश को चलाते रहेंगे? हम इस बात को लेकर खुश है कि लोकसभा चुनाव में मुख्तार अंसारी, पप्पू यादव, मुन्ना शुक्ला जैसे अपराधिक छवि के लोगों को जनता ने लोकसभा में नकार दिया, लेकिन अभी भी ४० से ज्यादा सांसद ऐसे लोकसभा में पहुंचे है जिनके ऊपर १० या उससे ज्यादा अपराधिक मामले दर्ज है. अबू सलेम, अरुण गवली और आश्विन नाइक जैसे लोग लाइन में खडे है और हम ख़ुशी मना रहे है। सबसे ज्यादा दोष हमारे कानून व्यवस्था का है जो इन लोगों को चुनाव लड़ने की अनुमति देता है। अगर यही हाल रहा तो वो दिन दूर नहीं "जब लादेन हमारे देश का प्रधानमंत्री होगा".

Wednesday, 13 May 2009

क्या मीडिया कांग्रेस की कठपुतली है ??

लोकसभा चुनाव का अंतिम दौर भी अब ख़त्म हो गया है और सारी मीडिया ने अपने अपने तरीके से कयास भी लगाने शुरू कर दिए है। हर चरण के मतदान के बाद हमारी तथाकथित मीडिया अपना अनुमान लोगों के सामने परोस रहा है। पता नहीं इन लोगों ने किसी वोटर से पूछा भी है या नहीं या फिर वोट देने के बाद कोई कितना सच वोलता है ये मैं नहीं जानता, लेकिन सारा मीडिया अपने अपने सर्वे के अनुसार लोगों को बता रहा है कि किसको कितनी सीटें मिलेंगी और किसकी सरकार बनेगी।

कभी आपने सोचा है कि वो चाहे प्रिंट मीडिया हो या फिर इलेक्ट्रोनिक मीडिया सबके अनुसार कांग्रेस ही सरकार बना रही है। कांग्रेस को ही सबसे ज्यादा सीटें मिल रही है। हर राज्य में जहाँ बीजेपी और अन्य पार्टियाँ मजबूत है वहां भी कांग्रेस को बढ़त दिखा रहे है। मैं ये नहीं कहता की कांग्रेस सरकार नहीं बना सकती या फिर मीडिया का अनुमान सही नहीं हो सकता, लेकिन आंकडे तो कम से कम ऐसे हो जिस पर यकीन किया जा सके। हिन्दुस्तान की पब्लिक इतनी भी मूर्ख नहीं है कि उसे सही गलत आंकडों का पता ही न चलता हो। अब एक नामी अंग्रेजी अखबार को ही ले लीजिये, वो कांग्रेस को उत्तर प्रदेश में १५ सीटें दिलवा रही है। अब भाई इतनी तो कांग्रेस की विधानसभा की सीटें भी नहीं है। और कांग्रेस का खुद का अनुमान भी इतना नहीं बता रहा है। एक और हिंदी चॅनल पंजाब में जहाँ बीजेपी अकाली की सरकार है वहां बीजेपी अकाली को ३ सीटें बता रही है जो मेरी तो समझ से बाहर है।

ये तो बस कुछ का अनुमान बता रहा हूँ लिस्ट काफी लम्बी है, जिसपर हसीं भी आती है और गुस्सा भी, कि सारी मीडिया किस तरह कांग्रेस की कठपुतली बन गयी है। जाहिर सी बात है सरकार अभी कांग्रेस की है तो उसकी तो चाटना ही पड़ेगा। आपको याद होगा गुजरात में सारी मीडिया मोदी को हराने में लगी हुई थी और जब परिणाम आया तो सब बगुले झाकने लगे थे। ऐसा ही कुछ पंजाब और कर्णाटक में भी हुआ था। आने वाला परिणाम जो भी हो पर इस चाटुकार मीडिया को तो हार का सामना करना ही पड़ेगा. ..अरे भाई लोग ये पब्लिक है सब जानती है।

Thursday, 7 May 2009

क्या ये राष्ट्रगान का अपमान नहीं है ???

हिन्दुस्तान में राष्ट्रगान को जितना सम्मान दिया जाता है, उतना शायद ही किसी और चीज़ को दिया जाता होगा। हर इंसान राष्ट्रगान को उतने ही सम्मान के साथ गाता है, जितना सम्मान वो अपनी माँ को देता है। लेकिन कुछ लोग ऐसे भी है जो अपने प्रोडक्ट को बेचने के लिए राष्ट्रगान जैसे पवित्र गीत से खिलवाड़ करने से भी बाज नहीं आते। हमारी फ़िल्मी दुनिया इस मामले में सबसे आगे है। ताजा मामले में राष्ट्रगान के साथ खिलवाड़ किया है मशहूर फिल्मकार राम गोपाल वर्मा ने जिन्होंने अपनी फिल्म रन में राष्ट्रगान को तोड़ मरोड़ कर पेश किया है। ये गाना राष्ट्रगान की पंक्तियों को लेकर बनाया गया है जो निश्चित रूप से एक जघन्य अपराध की तरह है।

हमारे कानून के मुताबिक किसी भी व्यक्ति या संस्था को ये अधिकार नहीं है, की वो राष्ट्रगान के साथ खिलवाड़ कर सकें। राष्ट्रगान से खिलवाड़ राष्ट्र से खिलवाड़ जैसा है। मगर राम गोपाल वर्मा ने अपनी फिल्म रन में ऐसा ही अपराध किया है। अब रामगोपाल वर्मा को तो आप अच्छी तरह जानते है, जी हाँ ये वही फिल्मकार है, जिन्होंने रामगोपाल वर्मा की आग जैसी फिल्म बनायीं थी और सुपर फ्लॉप रही थी। उनके दिन तो अब अच्छे चल नहीं रहे है, तो उन्होंने सस्ती लोकप्रियता पाने और फिल्म को विवाद के जरिये सफल बनाने का ये आसन तरीका चुना है। और जवाब मांगने पर निपट लेने की धपकी भी दे रहे है।

दिल्ली में हुई प्रेस कांफ्रेंस में जब राम गोपाल वर्मा से इस बारे में पुछा गया तो उनका कहना था की उन्होंने कोई गलती नहीं की है और किसी ने अगर ऐतराज़ जताया तो उससे निपट भी लेंगे। इसे कहते है चोरी ऊपर से सीनाजोरी। फिल्म के बाकी कलाकार जैसे अमिताभ बच्चन इस मामले पर खामोशी की मुद्रा में दिखाई दिए। अब सवाल ये उठता है की इन २ कोडी के फिल्मकारों को किसने ये हक़ दिया की वो राष्ट्रगान का अपमान कर सके ?

आप भी सुनिए और फैसला कीजिये की क्या ये राष्ट्रगान का अपमान नहीं है??

Sunday, 1 March 2009

फेमिली प्रॉब्लम...

मैं हमेशा से गंभीर मुद्दों पर बात करते आया हूँ, तो सोचा आज किसी अलग टोपिक पर बात की जाये...व्यक्ति जब से पैदा होता है, प्रॉब्लम उसके साथ साथ चलती रहती है। जब वो छोटा होता है तो स्कूल जाने की प्रॉब्लम, थोडा बड़ा होने पर मनमानी न कर पाने की प्रॉब्लम और जवान होने पर प्रेमिका की प्रॉब्लम। हर समय प्रॉब्लम ही प्रॉब्लम। लेकिन इन सबसे अलग और सबसे बड़ी प्रॉब्लम आदमी की जिन्दगी में तब आती है, जब वो शादी शुदा हो जाता है यानि "फेमिली प्रॉब्लम". फेमिली प्रॉब्लम का मतलब होता है घर के अन्दर की प्रॉब्लम। आपके, हमारे, हम सब के घर में भी फेमिली प्रॉब्लम की किचकिच लगी ही रहती है।

चलिए फेमिली प्रॉब्लम के बारे में काफी बात हो गयी, अब असल मुद्दे पर आते है। आज सुबह ही इन्टरनेट की दुनिया में घूमते हुए एक फेमिली प्रॉब्लम से टकरा गया। एक ऐसी फेमिली प्रॉब्लम जिसके बारे में आप कभी सोच भी नहीं सकते...तो मैंने सोचा की इस विचित्र और दुनिया की सबसे बड़ी फेमिली प्रॉब्लम से मैं आपको भी रूबरू करवाता चलूँ.....

.... एक बार दो व्यक्ति एक बियर बार में बैठे थे।
......एक ने कहा...." यार.... बहुत फेमिली प्रॉब्लम है "॥
दूसरा व्यक्ति : तू पहले मेरी बात सुन.....
मैंने एक विधवा महिला से शादी की जिसकी एक लड़की थी।
कुछ दिनों बाद पता चला कि मेरे पिताजी को उस विधवा महिला की पुत्री से प्यार है ....और उन्होने इस तरह मेरी ही लड़की से शादी कर ली ...
अब मेरे पिताजी मेरे दामाद बन गए और मेरी बेटी मेरी माँ बन गयी....और मेरी ही पत्नी मेरी नानी हो गयी !!
ज्यादा प्रॉब्लम तब हुई जब जब मेरे को लड़का हुआ...अब मेरा लड़का मेरी माँ का भाई हो गया, तो इस तरह मेरा मामा हो गया .....
परिस्थिति तो तब ख़राब हुई जब मेरे पिताजी को लड़का हुआ ....मेरे पिताजी का लड़का यानी मेरा भाई मेरा ही नवासा( दोहिता ) हो गया और इस तरह मैं स्वयं का ही दादा हो गया और स्वयं का ही पोता बन गया .....
......." और तू कहता है कि तुझे फेमिली प्रॉब्लम है ....

तो भैया पढा आपने कि कितनी बड़ी फेमिली प्रॉब्लम है इन भाईसाब को...अब मत कहना कि आपकी भी फेमिली प्रॉब्लम है...

Tuesday, 24 February 2009

ऑस्कर से प्यार...मुंबई हमलों से सौतेला व्यवहार

भाई ऑस्कर अवार्ड ख़त्म हो गए और स्लमडॉग ने भी ८ अवार्ड जीतकर सबको चौंका दिया। इस सबके तुंरत बाद हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल की प्रतिक्रिया भी सामने आ गई। दोनों ने करीब करीब ऑस्कर ख़त्म होने के तुंरत बाद अवार्ड जीतने वालों को शुभकामनाएं दी, उससे लगा की हमारे देश को चलाने वाले इन दोनों नेताओं ने पूरे ऑस्कर समारोह को बड़े ही चाव से पूरे तीन घंटे देखा होगा, इसलिए शायद प्रितिक्रिया आने में ज्यादा समय नहीं लगा।

मैं इन दोनों नेताओं की प्रतिक्रिया सुनकर हैरान नहीं हूँ लेकिन जितने जल्दी इन दोनों की प्रतिक्रियां सामने आई उससे में हैरान हुआ हूँ। दरअसल हमारे दोनों नेताओं की इतनी तेजी से प्रतिक्रिया देने पर मुझे थोड़ा आश्चर्य भी हुआ। क्योंकि जिस समय मुंबई में २६/११ के दिन देश का सबसे बड़ा आतंकवादी हमला हुआ था, उस दिन हमारे प्रधानमंत्री जी की प्रतिक्रिया आने में पूरे २४ घंटे लग गए थे, जबकि राष्ट्रपति महोदिया की प्रतिक्रिया तो मैंने देखी भी नही। राष्ट्रपति जी के बारे में मैं शायद में ग़लत हो सकता हूँ , लेकिन २४ घंटे तक इन दोनों की कोई प्रतिक्रिया मैंने तो चैनल पर नहीं देखी। ये तो वही बात हो गई ऑस्कर से प्यार और मुंबई हमलों से सौतेला व्यवहार। ये भी हो सकता है कि राष्ट्रपति जी को प्रतिक्रिया देने का समय ही न मिला हो और हमारे प्रिये प्रधानमंत्री जी शायद सोनिया जी के आदेश का इन्तजार कर रहे होंगे।

क्रिकेट में भारत की जीत हो या ऑस्कर में सफलताओं की बात हो दोनों जगह देश के जिम्मेदार नेता क्रेडिट लेने के लिए तैयार खड़े नज़र आते है। लेकिन जब देश के ऊपर कोई विपत्ति आती है तो उन्हें बोलने के लिए २४ घंटे लग जाते है। ऐसे में अब सवाल ये उठता है की जिन के हांथो में देश की बागडोर दी गई हो वो लोग देश की जिम्मेदारी को कब समझेंगे। सफलता पर बडबडाना और बात है लेकिन जब मुंबई और दिल्ली हमलों जैसी जटिल समस्या देश के ऊपर आती है, तो उसका समाधान निकालना अलग हो जाता है। खैर मुझे नहीं लगता मेरे बडबडाने से कुछ होगा, क्योंकि ना तो देश के नेता सुधरने वाले है और शायद ना ही ये देश।

Friday, 20 February 2009

ब्लोगिंग भी चली देसी मीडिया की राह पर..

मै एक अदना सा ब्लोगर हूँ। ब्लॉग की दुनिया में कदम रखे हुए मुझे ज्यादा लंबा अरसा नहीं हुआ है। पर पता नहीं क्यों पिछले कुछ समय से एक बात मेरे दिमाग में कौंध रही थी, रह रह कर मुझे लिखने के लिए उत्तेजित कर रही थी, वो यह कि ब्लोगिंग भी अपने मूल सिद्धांतों से भटक रही है। मैंने ब्लॉग जगत को जितना जाना है, जितना परखा है, उसके मुताबिक हम ब्लोगर्स अपने अपने ब्लॉग और टिप्पणियों में हमेशा मीडिया की आलोचना करते रहे है। कभी उसके नॉन न्यूज़ को लेकर, तो कभी सेक्स परोसे जाने को लेकर, तो कभी ख़बर को सनसनीखेज बनाने को लेकर, तरह तरह से मीडिया की आलोचना ब्लॉग जगत में होती रही है। ये बात में भी मानता हूँ कि मीडिया की आलोचना के लिए ख़ुद मीडिया ही जिम्मेदार है। लेकिन अगर ब्लॉग जगत की बात की जाए ,तो वो भी इससे अछूता नही रहा है। आज ब्लोगिंग भी हमारे देसी मीडिया की राह पर चलती हुए दिखाई दे रही है, हालाँकि ब्लोगिंग एक माध्यम है अपनी बात को कहने का, हर किसी को हक़ है कि वो ब्लॉग के जरिये अपनी बात को लोगों तक पहुंचाए, लेकिन उसका तरीका सही होना चाहिए। उसकी भाषा सभ्य होना चाहिए। उससे कोई फर्क नहीं पड़ता की मुद्दा क्या है।

आज ब्लॉग जगत में भी वही सब परोसा जा रहा है, जिसके लिए हम भारतीय मीडिया की आलोचना करते है। जिस तरह से मीडिया में सेक्स को बेचा जाता है, ठीक उसी तरह ब्लॉग जगत में भी सेक्स से जुड़ी खबरे काफी तादाद में देखने को मिल रही है और ऐसे ब्लोगों पर टिप्पणियों की हो रही बरसात को देखकर लगता है, कि यहाँ भी सेक्स को तबज्जो देने वाले लोगों की कमी नही है। ब्लॉग जगत में भी मीडिया की ही तरह ख़बरों की भाषा बद से बदतर होती जा रही है, जिसका उदाहरण हम मंगलोर में हुई घटना के बारे में ब्लॉग पर देख ही चुके है। यहाँ भी टिप्पणी पाने के लिए ख़बरों को सनसनीखेज बनाया जा रहा है। एक ब्लॉग पर दिल्ली स्कूल के MMS को लेकर मीडिया की धज्जियाँ उडाई जा रहीं है, कि मीडिया लड़की की पहचान सार्वजनिक कर रही है, पर इसी तरह की एक छेड़खानी की घटना को ब्लॉग जगत भी तो बिना पहचान छिपाए चटकारे लगाकर बता रहा है। क्या उससे उस व्यक्ति की पहचान सार्वजनिक नहीं हो रही है।

अब ये सवाल उठाना तो लाज़मी है कि, क्या ब्लॉग जगत भी देसी मीडिया की राह पर नहीं जा रहा है ? मेरे नज़रिये से तो बिल्कुल ब्लॉग जगत हमारे तथाकथित मीडिया से कदम से कदम मिलकर चल रहा है। जिसे हर हाल में रोका जाना चाहिए, नहीं तो इस दौर की पत्रकारिता का सबसे सशक्त माध्यम बन कर उभर रहे ब्लॉग जगत को गर्त में जाने से कोई नहीं रोक सकता। ब्लॉग जगत में बड़े-बड़े पत्रकारों से लेकर कई बुद्धिजीवी लोग भी बैठे हुए है, मै उनके विचार जानने के साथ साथ उनसे यह आशा भी करता हूँ, कि वो भी ब्लॉग जगत के भटक रहे क़दमों को रोकने का प्रयास करेंगे।

Sunday, 15 February 2009

युवाओं का फैशन हो गया है...नेताओं को गाली बकना।

एक वक्त था, जब आम लोग नेताओं के साथ कंधे से कन्धा मिलाकर काम किया करते थे। लोग नेता कहलाने में फक्र महसूस किया करते थे। नेताओं का मतलब हुआ करता था, समाज की सेवा करने वाला व्यक्ति, लेकिन आज राजनीती एक दलदल में परिवर्तित हो गई है, हर नेता लोगों का खून चूसने में लगा हुआ है। ऐसे में हमारा आने वाला कल यानि "युवा" हाँथ पर हाँथ धरे बैठे हुआ है। युवाओं का फैशन हो गया है, नेताओं को गाली बकना। जब भी युवाओं से राजनीति की बात की जाती है, तो पहले वो इस पर बात करने से बचते है और अगर बात आगे बढ़ी, तो नेताओं को गाली देकर अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाते है। कोई नेताओं को भ्रष्टाचारी कहता है, तो कोई उन्हें देश का दुश्मन करार दे देता है।

अब सवाल ये उठता है, की नेताओं को गाली देना कितना सही है। मेरे नज़रिये से अकेले नेताओं को देश की बर्बादी के लिए जिम्मेदार ठहराना ग़लत है। देश की बर्बादी के लिए हम और हमारा युवा वर्ग भी उतना ही जिम्मेदार ,है जितने ये भ्रष्ट नेतागण, क्योंकि जब भी इन्हे चुनने की बारी आती है, तो हमारे युवा पहले तो वोट नहीं देते है और जो देते है, वो एक दारू की बोतल या फ़िर १०० रुपये के कम्बल में अपना वोट बेंच देते है और पॉँच साल तक फ़िर नेताओं को गाली देने का क्रम चालू हो जाता है। मुझे एक बात समझ में नहीं आती कि इन युवाओं को जिनका राजनीति में कोई योगदान नहीं है, किसने ये हक़ दिया कि वो नेताओं को गाली दे।

जब भी हमारे देश में बच्चा पैदा होता है, तो उसके माँ बाप कहते है कि, मैं अपने बच्चे को डोक्टर, पायलट या इंजिनीअर बनाऊंगा, लेकिन ये कोई नहीं कहता कि, मेरा बेटा बड़ा होकर नेता बनेगा। चलिए मैं भी ये नहीं कहता कि सभी को नेता बनना चाहिए, लेकिन एक सही व्यक्ति का चुनाव करने में सभी को योगदान देना चाहिए। अब इस पर भी हमारे युवा कहेंगे कि सभी उम्मीदवार एक जैसे होते है।जिसे चुनकर लाओगे वही पैसा खायेगा। मैं उन सब लोगों से पूछना चाहता हूँ, कि एक आदर्श नेता कैसा होता है, लोगों के हिसाब से इमानदार, मेहनती, युवा व्यक्ति ही सच्चा नेता होता है, लेकिन वो कहेंगे ऐसे लोग चुनाव मे खड़े नहीं होते।
मैं एक उदाहरण देना चाहूँगा, अभी पिछले साल ही उत्तर प्रदेश में चुनाव हुए है, जहाँ कानपुर से सात IIT के छात्र चुनाव मैदान में उतरे थे, लेकिन सबसे चौकाने वाली बात ये है कि, उनमे से एक भी छात्र अपनी जमानत नही बचा पाया. अब गौर करने वाली बात आती है कि, IIT के छात्र पढ़े लिखे भी होते है, इमानदार भी है और युवा तो वो है ही, लेकिन इसके वाबजूद लोगों ने उन्हें वोट क्यों नहीं दिया ? अब इस बात का जवाब तो हमारा युवा वर्ग ही दे पायेगा, लेकिन इतना तय है, कि अगर अब भी हमारे युवाओं ने नेताओं को गाली देना नहीं छोड़ा और देश के विकास के लिए योगदान देने आगे नहीं आए, तो आगे भी हमारा देश पप्पू यादव, मुख्तार अंसारी और सहाबुद्दीन जैसे बाहुबली नेताओं के चंगुल में फसकर बर्वाद होता रहेगा...और फ़िर इन बाहुबली नेताओं को गाली भी नहीं दे पाओगे।

Thursday, 12 February 2009

स्टिंग ऑपरेशन...सही या ग़लत ?


स्टिंग ऑपरेशन एक ऐसा ऑपरेशन होता है, जिसमे डॉक्टर भी मीडिया वाले होते है और मरीज भी उनका मनचाहा होता है. डॉक्टर से मेरा मतलब रिपोर्टर या कैमरामैन से है और मरीज का मतलब वो व्यक्ति जिसे निशाना बनाया जाता है. स्टिंग ऑपरेशन करने से पहले बाकायदा उसका खाका तैयार किया जाता है, दाना डालने में माहिर रिपोर्टर चुना जाता है, दाना डालने से मेरा मतलब है, मरीज को फ़साने के लिए लम्बी लम्बी हांकना और इसके बाद अच्छे कैमरामैन का चुनाव होता है. फ़िर चुना जाता है उस किरदार को जो पूरी स्टोरी का अहम हिस्सा होता है, यानि मरीज... जिसे बकरा भी कहा जाता है. स्टिंग ऑपरेशन में सबसे महत्वपूर्ण होता है कैमरा, जिसके लिए कुछ उन्नत किस्म के छोटे कैमरों का इस्तेमाल किया जाता है, जो सामने वाले को आसानी से दिखाई नही देते। इन सारी चीजों को जब अमल में लाया जाता है तब होता है स्टिंग ओपरेशन.

मीडिया में स्टिंग ऑपरेशन का चलन काफी पहले से है, पहले प्रिंट मीडिया भी स्टिंग ओपरेशन किया करती थी। अब स्टिंग ओपरेशन इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का अभिन्न अंग हो गया है। समय समय पर चैनल स्टिंग ऑपरेशन करता आया है। तहलका, इंडिया मोस्ट वांटेड, कोबरा पोस्ट जैसे प्रोग्राम स्टिंग ऑपरेशन के लिए ही जाने जाते है। पैसे लेकर सबाल पूछने का मामला हो, शक्ति कपूर, अमन वर्मा का स्टिंग हो या फ़िर गुजरात चुनाव के पहले किया गया गोधरा कांड का स्टिंग हों, सभी ने हिन्दी चैनलों पर काफी धूम मचाई है। स्टिंग ऑपरेशन आजकल न्यूज़ कम और रिपोर्टर को तरक्की देने वाला माध्यम अधिक बनता जा रहा है, जिससे इसकी सार्थकता पर भी असर पड़ा है।

सवाल ये उठता है कि स्टिंग ऑपरेशन कितना सही होता है, आजकल मीडिया के कई दिग्गज भी स्टिंग के ऊपर सवाल उठा रहे है. जिसमे महान पत्रकार कुर्बान अली तो यहाँ तक कहते है की, सभी स्टिंग ऑपरेशन ब्लैकमेल करने के लिए होते है. लेकिन मीडिया में ऐसे लोंगो की कमी भी नहीं है, जो इसे जायज़ ठहराते है. दरअसल स्टिंग पत्रकारों के लिए तुरत - फुरत पैसे कमाने का माध्यम बन गया है. मीडिया ने ऐसे कई स्टिंग ऑपरेशन किए है जिसे फर्जी साबित भी किया गया है, जिनमे एक राष्ट्रीय चैनल के द्वारा किया गया, दिल्ली का उमा खुराना का स्टिंग काफी चर्चा में रहा था. इसके अलावा गोधरा स्टिंग पर भी सवाल उठे थे कि, ये ख़ुद मोदी ने करवाया है. कई स्टिंग मीडिया ने लोगों के बेडरूम तक में जाकर किए है, जिसे हरगिज सही नही ठहराया जा सकता, हालाँकि ऐसा नही है, कि सारे स्टिंग ऑपरेशन फर्जी रहे है, लेकिन जो मीडिया आज अपने को समाज का ठेकेदार कहने से बचने लगी है, उसे किसने ये अधिकार दिया है, कि किसी के घर में घुसकर उसकी निजी जिन्दगी से खिलवाड़ किया जाए. वो भी तब जब उसका ख़ुद का दामन दागदार हो...

Sunday, 8 February 2009

राम...अब नहीं आएंगे काम


भगवान राम एक ऐसा नाम है, जिसपर लाखों लोगों की श्रद्धा है। जिनके नाम से करोड़ों लोगों की आस्था जुड़ी हुई है. राम हिंदू धर्म के इष्ट देव कहलाते है. वैसे हिंदू धर्म में कभी राम का बर्चस्व नहीं रहा, क्योंकि हिंदू धर्म में सभी देवी देवताओं को सामान रूप से पूजा जाता है, लेकिन देश की एक बड़ी राजनीतिक पार्टी भारतीय जनता पार्टी में हमेशा से ही राम नाम की तूती बोलती है. पार्टी के बैनर से लेकर पार्टी स्लोगन भी राम नाम से ही होते है. एक समय में बीजेपी का नारा हुआ करता था, जो राम का नही वो किसी काम का नहीं। इसी राम नाम के सहारे अब तक बीजेपी अपनी नैया पार करती रही है. लेकिन यथार्त के धरातल पे आते ही बीजेपी को राम की याद आना बंद हो जाती है. जब भी लोगों को बरगलाना हो या चुनावी रोटियां सेंकनी हो, तो राम मन्दिर और राम सेतु जैसे मुद्दों के सहारे समय समय पर बीजेपी को भी राम की याद आ ही जाती है.

पिछले ५ सालों से राम के नाम पार खामोश रही बीजेपी को चुनावों के ठीक पहले फ़िर से राम और राम मन्दिर की याद आ गई है। बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने पार्टी के चिंतन शिविर को संबोधित करते हुए एकबार फ़िर से राम मन्दिर का वही पुराना घिसा पिटा राग अलापा है, जिसमे बड़े जोश के साथ राजनाथ सिंह ने कहा, कि सत्ता में आने के बाद राम मन्दिर का निर्माण कराया जाएगा. इस मन्दिर मुद्दे को बीजेपी एक बार फ़िर से भुनाना चाह रही है और इसके सहारे फ़िर से सत्ता पर काबिज होने का सपना भी देखने लगी है. अब ये बात किसी को हजम नही हो रही है, कि जिस राम मन्दिर के सहारे बीजेपी ने ६ साल तक सत्ता का सुख भोगा, उसी बीजेपी ने अपने पूरे कार्यकाल में राम मन्दिर बनवाना तो दूर, उसके बारे में बात करना तक गबारा नहीं समझा. अब सबाल ये उठता है की क्या वही बीजेपी दोबारा सत्ता में आकर मन्दिर निर्माण करवा पायेगी.

राजनाथ जी ये बदलते दौर का भारत है, अब राम आपके काम नहीं आएंगे। अब यहाँ की जनता ना ही आपके बहकावे में आने वाली नही है और ना ही आप जैसी मौकापरस्त पार्टियों को घांस डालने वाली है। राम में हर हिंदू की आस्था है और राम मन्दिर हर हिंदू की दबी हुए अभिलाषा भी है, लेकिन अब वह हिंदू आप जैसे लोंगों की चिकनी चुपडी बातों में आकर फिसलने वाला नही है। अब राम के नाम पर ना ही कोई राम सेतु तोड़ सकता है और ना ही सरकार बना सकता है।

अंत में चंद लायने हम सबके लिए.....

"जो हिंदू न मिटा है, कंस की तलवार से
जो हिंदू न डरा है, रावण की ललकार से
वो हिंदू क्या फसेगा, बीजेपी की बकवास से"



Friday, 6 February 2009

काश !.. मैं भी क्रिकेटर होता


फ्लिंटाफ - ७.५५ करोड़, पीटरसन- ७.५५ करोड़, धोनी ६ करोड़...आज खबरिया चैनलों पर क्रिकेटरों की बोली लगते हुए देखा, तो मन में एक ही ख्याल आया कि, काश मैंने भी बचपन में क्रिकेट खेला होता, काश उसपर दिन रात एक कर दिया होता, तो शायद आज मैं भी करोड़ों में खेल रहा होता. आज मुझे एहसास होता है कि जो लाखों रूपये मैंने अपनी पढाई के दौरान खर्च किए, अगर उसे क्रिकेटर बनने में खर्च किया होता, तो शायद आज १०-२० हजार के लिए दिन रात एक नहीं करना पड़ता और मजे से खेल कर भी पैसा कमा रहा होता. खैर अब पछताए होत का जब चिडिया चुग गई खेत।

जिस तरह से IPL में क्रिकेटर बिक रहे है, उससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि, आज अगर सबसे ज्यादा पैसा किसी धंदे में है तो वो क्रिकेट में है. तभी तो फिल्मी सितारे हों या राजनीती की गोटियाँ खेलने वाले नेता, सभी किसी न किसी रूप में क्रिकेट से जुड़ रहे है और करोड़ों के बारे न्यारे कर रहे है. वैसे हमेशा से एक बहस चली आ रही है कि असली हीरो कौन है, "क्रिकेटर" जो देश के लिए खेलते है या फ़िर परदे के "फिल्मी हीरो" जो लाखों दिलों पर राज करते है. इस बहस में हमेशा से क्रिकेटर, फिल्मी हीरो से एक कदम आगे रहे है. लेकिन जिस तरीके से क्रिकेटरों का भाव लग रहा है, वे IPL के बाज़ार में बिक रहे है उसे देखकर मन में सबाल उठता है कि, क्या बाकई में ये क्रिकेटर देश भावना के लिए खेलते है या फ़िर पैसा ही इनके लिए सबकुछ है.

जनाब पैसा बोलता है और IPL के बाजार में भी पैसा बोल रहा है. तभी तो एक - एक प्लेयर करोड़ों में बिक रहा है चाहे वो भारतीय हों या विदेशी. एक ओर जहाँ हमारा देश घोर आर्थिक मंदी के दौर से गुजर रहा है, लोंगों को नौकरियां बचाने के लिए जद्दोजहत करनी पड़ रही है, वहीँ इसे देश कि विडंबना ही कहेंगे कि दूसरी ओर क्रिकेट में लग रही बोली में करोड़ों रुपये पानी की तरह बहाया जा रहा है.
खैर इस देश का तो कुछ नही हो सकता, और आप के बारे में भी मुझे नहीं मालूम, लेकिन IPL में लग रही इस बोली से एक सबक तो मैंने सीख ही लिया कि, मैं तो क्रिकेट नही खेल पाया, लेकिन अपने बच्चों को मार-मार के क्रिकेटर जरूर बनाऊंगा.

Monday, 2 February 2009

“मीडिया”..देश के लिए खतरा !


लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ होने का दम भरने वाली मीडिया इस समय अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है। आम हो या खास हर आदमी मीडिया की आलोचना कर रहा है। जो आदमी पहले मीडिया को लोकतंत्र का हितैषी कहता था, अब उसी मीडिया को देश के लिए खतरा बता रहा है ।सही भी तो है, हमेशा आम आदमी के सरोकार की दुहाई देकर अपनी दुकान चलाने वाली मीडिया, अब उसी आम आदमी को ठेंगा दिखा रही है. TRP की अंधी दौड़ में भाग रही मीडिया के लिए अब हाई प्रोफाइल लोग ही ख़बर बनते है. जब भी किसी की हत्या होती है या फ़िर किसी के साथ बलात्कार होता है, तो अपने को पत्रकार कहने वाले मीडिया के उच्च पदों पर बैठे लोग पीड़ित की प्रोफाइल पूंछते है, अगर पीड़ित किसी डॉक्टर, इंजिनियर, या फ़िर फिल्मी दुनिया से जुड़ा कोई शख्स है, तो वो उनके लिए ख़बर है अगर इससे नीचे कोई है, तो उसे पूंछने की जहमत भी कोई मीडिया हाउस नही उठाता.

पिछले ४ दिनों से मीडिया, हरियाणा के पूर्व उप मुख्यमंत्री चाँद और उनकी बीबी फिजा की नौटंकी को दिखा रहा है, जिससे आम आदमी का कोई सरोकार नही है. कोई उसे सबसे तेज़ दिखा रहा है, तो कोई उस ख़बर को हर कीमत पर दिखा रहा है. कोई कहता है, कि उसकी नज़र हर ख़बर पर है. ख़बरों के नाम पर नंगापन परोसना, अपने मन मुताबिक उन्हें सनसनीखेज बनाना, आज मीडिया का काम बनता जा रहा है। आखिर मै इस बात को अब तक नहीं समझ पा रहा हूँ कि भूत प्रेत और कुत्ता बिल्ली का खेल दिखाने वाले इस मीडिया को समाचार चैनल कहा जाए या फ़िर मनोरंजन चैनल।

जिस तरह से आरूषी का फर्जी MMS दिखाया गया और जिस तरह से मुंबई हमले की रिपोर्टिंग कि गई, उससे कुछ भला तो नही हुआ, उल्टा मरने के बाद भी एक लड़की बदनाम हो गई और दूसरा, आतंकवादी ६० घंटे तक मुंबई को अपनी गिरफ्त में लेकर अपनी मनमानी करते रहे .२६/११ के इस हमले के बाद भी मीडिया को ताज और ओबेरॉय की याद अब तक आ रही है, लेकिन CST और नरीमन हाउस अब उन्हें याद नहीं है. क्योंकि इस मीडिया को आम आदमी का दर्द कभी दिखाई ही नही देता. ठीक है अपनी रोजी रोटी चलाने के लिए TRP कि दौड़ मै दौड़ना जरुरी है, लेकिन फ़िर क्यों ये मीडिया वाले अपने को समाज का सच्चा हितैषी बताते है. अभी भी बक्त है मीडिया को अपने गिरेबान में झांककर देखना चाहिए, कि जिस आम आदमी ने उन्हें हीरो बनाया है वही उसे जीरो भी बना सकता है.


Thursday, 29 January 2009

पब संस्कृति" की गिरफ़्त में हिन्दुस्तान...


हमारा देश अपनी संस्कृति और सभ्यता के लिए पूरी दुनिया में जाना जाता है। ऑस्ट्रेलिया, इंग्लेंड और अमेरिका जैसे यूरोपियन देश भी भारत आकर हमारी संस्कृति को अपना रहे है. लेकिन न जाने क्यों इन सबके बावजूद भी हमारी युवा पीढी पाश्चात्य सभ्यता के जाल में उलझती जा रही है. पाश्चात्य सभ्यता से मेरा मतलब दिनों-दिन छोटे होते कपड़े, रास्तों पर अश्लील हरकतें करते युवा, और इन दिनों सबसे ज्यादा बहस का मुद्दा बने पब संस्कृति से है.

आखिर ये पब संस्कृति है क्या ? पब संस्कृति को जानने से पहले पब के बारे में जानना जरूरी है, पब वो जगह है जहाँ हमारी तथाकथित युवा पीढी जाकर कम कपडों में शराब, शवाब और कबाब का मजा लेते है। इन्ही पब और डिस्को का अनुसरण पब संस्कृति कहलाता है । पब संस्कृति हमारे देश के लिए एक जटिल समस्या बनती जा रही है, जिसकी गिरफ़्त में आकर हमारी युवा पीढी अपने आपको खोखला करने में लगी है. ऐसा नही है की पब संस्कृति केवल महानगरों तक ही सीमित है, अब इसका दायरा महानगरों से निकलकर छोटे शहरों तक जा पहुँचा है.

अभी हाल ही में मंगलोर के एक पब में हुए मारपीट की घटना इस बात का ताजा उधाहरण है कि पब संस्कृति देश के छोटे शहरों के युवाओं को भी अपनी चपेट में ले चुका है। हालाँकि मारपीट की इस घटना का मै समर्थन नही कर रहा हूँ, लेकिन जिस तरीके से श्रीराम सेना ने पब में जाकर मारपीट की घटना को अंजाम दिया और इसके बाद पब संस्कृति के बारे लोगों की जो प्रतिक्रियाएं सामने आ रही है, उससे ये साबित होता है की लोगों का गुस्सा इस संस्कृति के खिलाफ है और कहीं न कहीं ये गुस्सा जायज भी है .अगर हमने जल्द ही अपनी युवा पीढी को पाश्चात्य सभ्यता के चंगुल से छुटकारा नहीं दिलाया, तो इसके गंभीर परिणाम सामने आ सकते है और इसका ज़हर हमारी पीढी को गर्त में ढकेल सकता है.

Tuesday, 27 January 2009

राज ठाकरे और मीडिया...

राज ठाकरे को कौन नही जानता। महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के अध्यक्ष है, या यूँ कहें की देश को तोड़ने वाली राजनीती के अग्रिणी नेताओं में से एक है. राज ठाकरे पिछले काफी समय से उत्तर भारतीयों पर हमले के कारण मीडिया में छाए हुए है. अभी हाल ही में नासिक और मुंबई में फ़िर से राज की सेना का कहर उत्तरभारतीयों पर बरसा है। क्या इन सबके पीछे केवल राज ठाकरे जिम्मेदार है? या फिर हमारा मीडिया भी उतना ही जिम्मेदार है जितना राज ठाकरे।

जिस तरह के आग उगलने बाले भाषण राज अपनी सभाओं में देते है उन्हें कितने लोग सुनते है, ज्यादा से ज्यादा ५००० या १००००, लेकिन मीडिया उन भाषणों को दिखाकर उसकी आवाज लाखों लोगों तक पहुंचाती है और दंगा भड़काने में राज से भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है. अब सबाल ये उठता है की मीडिया को राज ठाकरे का कवरेज़ करना चाहिए या नही? मेरे नजरिये से मीडिया को राज ठाकरे का बहिष्कार कर देना चाहिए, क्योकि जितना आप उसे दिखाओगे उतना ही वो भोंकेगा. अभी कुछ दिन पहले मुंबई के ठाणे इलाके हुई में एक रैली में राज के निशाने पर सबसे ज्यादा अगर कोई था, तो वो था मीडिया, राज ने रैली में न सिर्फ़ मीडिया की जमकर बखियां उधेडी, बल्कि लोगों को उन्हें मारने के लिए भी उकसाया, लेकिन इन सबके बावजूद भी मीडिया ने राज ठाकरे का कवरेज़ किया और शायद आगे भी करती रहेगी. आखिर मीडिया की ऐसी क्या मजबूरी है ,जो गाली खाकर भी राज की दुम चाटने से बाज नही आते???

Sunday, 25 January 2009

नजरिया...सही या ग़लत

नमस्कार दोस्तों, आज से मै भी ब्लॉग की दुनिया में कदम रखने जा रहा हू. शुरुआत मै अपने ब्लॉग के नाम से करने जा रहा हूँ. "नजरिया" मेरा, आपका, हम सबका.. आखिर ये नजरिया है क्या बला? हमारी सोच, हमारे सोचने का ढंग नजरिया कहलाता है. हर किसी का नजरिया समान भी नही होता.हर व्यक्ति की सोच अलग होती है, फ़िर चाहे वो सही हो या ग़लत. यहाँ पर मुझे प्रसिद्ध लेखक शिव खेडा का एक प्रसंग याद आ रहा है, एक बार एक साइंटिस्ट ने शराब के नुकसान को बताने के लिए सेमीनार आयोजित किया, जिसमे उन्होंने एक गिलास मे पानी लिया तथा दूसरे मे शराब ली. इसके बाद एक केचुआ को पहले शराब के गिलास मे डाला, तो केचुआ मर गया, बाद मे पानी वाले गिलास मे केचुआ डाला तो उसे कुछ नही हुआ . साइंटिस्ट ने उधर मौजूद लोंगो से सवाल पूछा की इससे क्या समझे? उनमे से एक आदमी ने जवाब दिया कि शराब पीने से पेट के सारे कीटाणु मर जाते है, इसलिए शराब पीना चाहिए. ये उस आदमी का अपना नजरिया था, जिसमे उसे शराब के फायेदे दिख रहे थे नुकसान नही.
अब सबाल ये उठता है कि नजरिये का कुछ दायरा होना चाहिए या नही. या फ़िर किसी भी व्यक्ति को कुछ भी सोचने या लिखने का पूरा अधिकार है. मै बचपन से सुनते आ रहा हू कि हर किसी को कुछ भी सोचने और लिखने का पूरा अधिकार है, लेकिन यदि उससे किसी कि भावना को ठेस पहुचती हो तो क्या. आप ने मशहूर पेंटर M.F. हुसैन का नाम तो जरूर सुना होगा, जो हिंदू देवी देवताओं कि अश्लील तस्वीर बनाने के मामले मे काफी विवादस्पद रह चुके है. एक बार मैं उनका इंटरव्यू सुन रहा था, जिसमे उनसे पुछा गया की आप ने हिंदू देवी देवताओं कि अश्लील तस्वीर बनाकर हिन्दुओं की भावनायों को क्यों भड़काया, तो उनका कहना था कि उसमे मेरे नजरिये से कुछ भी अश्लील नही था. आख़िर कब तक हम अपने नजरिये और सोच कि दुहाई देकर बचते रहेंगे. आखिर कब तक हम अपने नजरिये कि दुहाई देकर लोगों कि भावनाओं के साथ खिलवाड़ करते रहेंगे. मै आप सब से जानना चाहता हु कि, इस नजरिये के बारे मै आपका नजरिया क्या है..